4/25/09

कृष्ण गोविंद गोपाल गाते चले।

कृष्ण गोविंद गोपाल गाते चले।
मनको, विषयोंके विषसे हटाते चले॥धृ॥

इंद्रियों के न घोडे, विषय से अडे।
जो अडे भी तो, संयम के कोडे पडे।
मन के रथ को, सुपथ पर बढाते चले ॥१॥

नाम जपते रहे, काम करते रहे।
पाप की वासनाओं से, डरते रहे।
सद् गुणोंका परमधन कमाते चले॥२॥

लोग कहते है, भगवान आते नहीं।
रुक्मिणी की तरह, हम बुलाते नहीं।
द्रौपदी की तरह, धुन जपाते चलो॥३॥

लोग कहते है, भगवान खाते नही।
भिल्लिणी की तरह हम खिलाते नहीं।
साक प्रेमी विदुर रस निभाते चले ॥४॥

दु:ख मे तडपे नही, सुख मे फुले नही।
प्राण जाये मगर, धर्म भुले नही।
धर्मधन का खजाना, लुटाते चलो॥५॥

वक्त आयेगा ऐसा, कभी ना कभी।
हम भी पायेंगे, प्रभुको कभी ना कभी।
ऐसा विश्वास मनमे जमाते चलो॥६॥

या कवितेचे रचनाकार कोण आहे, हे मला माहिती नाही. कोणाला रचनाकाराची कल्पना असेल तर अवश्य कळवावे.

1 comment:

Anonymous said...

आप भी उस रचनाकार को जानोगे कभी ना कभी।
ऐसा विश्वास मनमें रखिये सही॥